कानपुर के दिग्गज नेता श्रीप्रकाश जायसवाल का निधन | 15 साल तक रहे इकलौते सांसद

कानपुर, 29 नवंबर। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल के निधन से कानपुर की राजनीति में एक युग का अंत हो गया है। जनता के बीच गहरी पकड़ और सहज छवि के कारण उन्होंने ऐसा इतिहास रचा, जो आज तक कायम है—लगातार 15 वर्षों तक कानपुर के इकलौते सांसद रहने का रिकॉर्ड।

श्रीप्रकाश जायसवाल ने अपने लंबे राजनीतिक सफर में मेयर, गृह राज्य मंत्री, स्वतंत्र प्रभार मंत्री और कैबिनेट मंत्री जैसी महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाईं। उनके निधन की खबर फैलते ही बड़े पैमाने पर लोग अंतिम दर्शन के लिए उनके आवास पर उमड़ पड़े।


सुल्तानपुर से कानपुर तक—यात्रा जो दर्ज हुई इतिहास में

श्रीप्रकाश जायसवाल का जन्म सितंबर 1944 में सुल्तानपुर के गंगा प्रसाद जायसवाल के घर हुआ था, जो आज़ादी से पहले कानपुर आकर बसे। राजनीति में उनकी सक्रिय भागीदारी 1977 में शुरू हुई। 1984 में प्रदेश कांग्रेस कमेटी में पिछड़ा वर्ग संघ के महांमंत्री और बाद में चेयरमैन बने।

1989 में कानपुर के पहले प्रत्यक्ष चुनाव वाले महापौर बने—यहीं से उनकी लोकप्रियता का नया अध्याय शुरू हुआ।


कानपुर में भाजपा का उदय और जायसवाल की चुनौतियाँ

राम मंदिर आंदोलन के दौरान भाजपा का प्रभाव बढ़ा, जिसके चलते उन्हें 1993 में सतीश महाना के हाथों हार का सामना करना पड़ा। इसके बावजूद उनका जनाधार बना रहा।

1999 में कांग्रेस ने उन पर फिर भरोसा जताया। चुनाव के अंतिम तीन दिनों में उन्होंने परिस्थितियाँ पलट दीं और भाजपा से सीट छीन ली।


मेयर से कैबिनेट मंत्री तक—उत्कर्ष की यात्रा

लोकसभा में लगातार तीन बार (1999, 2004, 2009) जीतने के बाद:

  • UPA-1 में गृह राज्य मंत्री

  • UPA-2 में कोयला मंत्रालय के स्वतंत्र प्रभार मंत्री

  • 2011 में कोयला मंत्री के रूप में कैबिनेट पद

उनकी कार्यशैली ने उन्हें राष्ट्रीय राजनीति में मजबूत पहचान दिलाई।


मोदी की कानपुर रैली बनी टर्निंग पॉइंट

2014 चुनाव से ठीक पहले नरेंद्र मोदी ने कानपुर से ही चुनाव अभियान शुरू किया। एक सभा में मोदी द्वारा कहा गया वाक्य—
“कोयले की कालिख कानपुर भी पहुंच गई है”
ने चुनावी हवा बदल दी। इस रैली के बाद हालात ऐसे बने कि श्रीप्रकाश जायसवाल अंत तक राजनीतिक रूप से उबर नहीं पाए।


यादों में रहेगा ‘कानपुर का सपूत’

राजनीति में गहरा अनुभव, जनता से सीधा जुड़ाव और सहज व्यक्तित्व—ये तीन गुण उन्हें कानपुर की राजनीति में अमर बनाते हैं। उनका निधन शहर के लिए बड़ी क्षति के रूप में देखा जा रहा है।