लुधियाना क्यों नंबर-1? देरी से एफआईआर व लूट-चोरी बढ़त

लुधियाना शहर में एफआईआर दर्ज करवाने के लिए आम जनता कई बार पुलिस थानों और चौकियों के चक्कर काटती है, जो कि समय के साथ एक पुरानी आ रही समस्या बन गई है। दैनिक भास्कर ने पंजाब के कमिश्नरेट शहरों—अमृतसर, जालंधर और लुधियाना—में पर्चा दर्ज करने की प्रक्रियात्मक स्थिति का विश्लेषण किया और पाया कि सितंबर-अक्टूबर के बीच अपराध घटाने के प्रयासों के बावजूद जांच को बेसब्र और अनावश्यक रूप से लम्बा खींचे जाने के संकेत साफ दिखे। शिकायतें सीपी ऑफिस तक पहुंचने के बावजूद थानों में महीनों जमा रहने लगीं, और उन पर कार्रवाई शुरू होने में देरी का क्रम बना रहा। इन तीनों शहरों में देरी से मुकदमे दर्ज करने के मामले में लुधियाना प्रदेशभर में अव्वल रहा, फिर अमृतसर और जालंधर का स्थान रहा, जहां औसत देरी क्रमशः 7, 4 और 3 दिन दर्ज की गई।

अभिलेखों के मुताबिक सितंबर-अक्टूबर के इन महीनों में शहरों में आपराधिक घटनाओं की संख्या में भी बदलाव दिखा। लुधियाना में औसतन 7 दिन की देरी दिखी, जबकि अमृतसर और जालंधर में क्रमशः 4 और 3 दिन की औसत देरी रही। ताजा एक विश्लेषण के अनुसार लूट के मामलों में भी उछाल देखा गया: सितंबर से अक्टूबर के बीच लूट के केस 24 से बढ़कर 32 हो गए। इन आंकड़ों के साथ कटिंग-छांटन की एक प्रक्रिया सामने आई जिसमें भूमि-झगड़े, चोरी आदि अलग-अलग घटनाओं के पाचारण के बजाय एक ही पर्चे के भीतर समुचित रूप से “गिफ्तार” कर लिए जाते हैं। Case 1 में जमीन विवाद में 11 माह बाद दर्ज किया गया मुकदमा, Case 2 में चोरी की बाइक के मामले के लिए शिकायत दर्ज होने के आठ दिनों बाद भी प्रकरण की स्थिति अस्पष्ट रही।

Case 1 के अनुसार गांव में चल रहे एक पुराने जमीन विवाद के कारण 11 माह बाद थाने में पर्चा दर्ज किया गया। जसपाल सिंह ने 9 दिसंबर 2024 को कमिश्नर ऑफिस लुधियाना में शिकायत दी, लेकिन कार्रवाई शुरू करने में लगभग एक साल लग गया। Case 2 में प्रताप नगर के ऋषभ ने 1 नवंबर को जेएमडी मॉल के बाहर पार्क की गई बाइक चोरी की शिकायत दर्ज कराई; मोड़ यह रहा कि शुरू में शिकायत ही नहीं ली गई, और एक हफ्ते बाद दर्ज करने के बाद भी मौके पर पहुंचकर सीसीटीवी खंगालना या केस दर्ज करना अभी बाकी रहा। Case 3 में जानलेवा हमले के 17 दिन बाद 6 नवंबर को एफआईआर दर्ज हुआ, जब 20 अक्टूबर को दरवाजे के बाहर गंदा पानी और कूड़ा फेंका गया और पिता पर लोहे की रॉड-ईंट से हमला हुआ। ऐसे कई मामले एक ही एफआईआर में समाहित कर लिए जाते हैं, ताकि माहौल में संख्या कम नजर आए, पर इसके विपरीत यह प्रक्रियागत देरी और जाँच की संभावित बाधाओं को जन्म देता है।

इन घटनाओं के पीछे सबसे बड़ी धारणा पुलिस की “केस क्लबिंग” नीति है, जिसे अक्सर “केस क्लबिंग पॉलिसी” के नाम से जाना जाता है। इस नीति के अनुसार इलाके में एक जैसी दो-तीन वारदात होने पर यदि आरोपी पकड़ा गया है तो अन्य घटनाओं को भी एक ही मुकदमे में जोड़ दिया जाता है, ताकि कुल दर्ज मामलों की संख्या घटे। अलग-अलग घटनाओं के लिए अलग-अलग पर्चे, चालान और गवाह प्रस्तुत करने की बाध्यता से बचने के लक्ष्य को लेकर ऐसा किया जाता है, पर यह सीधे-सीधे समय-समय पर होने वाली देरी और साक्ष्यों के एकत्रीकरण के कठिनाल से निकलता है। परिणामस्वरूप चालान तैयार करना, साक्ष्य जुटाना और गवाह पेश करना जैसी बुनियादी प्रक्रियाओं में अड़चनों کا सामना करना पड़ता है। पंजाब पुलिस की आधिकारिक वेबसाइट भी यही बताती है कि त्वरित FIR दर्जी और साक्ष्यों के संग्रह पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए, ताकि न्याय प्रक्रिया समय पर आगे बढ़ सके। साथ ही, आप अगर इस मुद्दे पर विस्तृत संदर्भ देखना चाहें, तो ट्रिब्यून इंडिया जैसी प्रतिष्ठित मीडिया कवरेज भी देख सकते हैं जो पंजाब के अपराध-प्रति की स्थिति को दर्शाती है।

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